गुप्तकाल में बाल-विवाह के प्रथा को बढ़ावा मिला।
510 ई० के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से सती प्रथा का पहला प्रमाण प्राप्त होता है, यह तिथि गुप्तकाल की है।
गुप्तकाल में वेश्याओं को गणिका एवं वृद्ध वेश्याओं को कुट्टनी कहते थे।
याज्ञवल्क्य स्मृति में सर्वप्रथम कायस्थ शब्द उपयोगिता के आधार पर भमि के प्रकार का उल्लेख मिलता है।
गुप्त कालीन समाज परंपरागत रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्गों में विभाजित था।
गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा श्रेष्ठ नहीं थी। उन्हें संपत्ति के अधिकार से अलग कर दिया गया था।
जाति के रूप में ‘कायस्थ’ का उल्लेख सर्वप्रथम ओशनम स्मृति में मिलता है।
गुप्तकालीन ‘कृषि’ का विस्तृत वर्णन वृहत्संहिता एवं अमरकोष में मिलता है।
क्षेत्र भूमि कृषि योग्य भूमि वास्तु भूमि निवास योग्य भूमि चारागाह भूमि पशुओं के चारा के योग्य भूमि खिल्य ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी। अग्रहत गुप्तकाल में जंगली भूमि को अग्रहत’ कहते थे। जहाज-निर्माण भी इस काल में एक बड़ा उद्योग था। इससे व्यापार में सहायता मिलती थी।
गुप्तकाल में व्यापार अत्यंत उन्नत स्थिति में था
कृषि से संबंधित कार्यों को देखने की जिम्मेदारी महाअक्षपटलिक एवं कारणिक पर थी। ।
वृहत्संहिता में कम से कम 22 रत्नों का उल्लेख है।
रत्नों को परखने की कला इस काल में अत्यंत विकसित थी।
इस काल में सिंचाई के लिए रहत या घटीयंत्र का प्रयोग होता था।
गुप्त काल में कृषकों को कुल ऊपज का 1/6 हिस्सा ‘कर’ के रूप में देना पड़ता था।
दशपुर, बनारस, मथुरा और कामरूप कपड़ा उत्पादन के बड़े केंद्र थे।
वात्स्यायन के कामसूत्र में इस कला को 64 कलाओं में शामिल किया गया है।
श्रेणियाँ (GUILDS)
- पेशावर, भड़ौंच, उज्जैयनी, बनारस, प्रयाग, मथुरा, व्यापारियों के निगम एवं शिल्पियों की श्रेणियाँ पूर्ववत् कार्य कर रही थीं।
- ये संस्थाएँ बैंकों की तरह भी कार्य करती थी।
- इन संस्थाओं का प्रबंध छोटी-छोटी समितियों द्वारा होता था जिनमें 4 से 5 तक सदस्य होते थे।
गुप्तकाल में अनेक वैष्णव मंदिरों का निर्माण हुआ
गुप्तकाल में वैष्णव-भागवत् धर्म की खूब उन्नति हुई।
गुप्तकाल में वैष्णव धर्म संबंधी सबसे महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ (झांसी) के दशावतार मंदिर से प्राप्त हुए हैं।
शैव, बौद्ध एवं जैन धर्मों को भी इस काल में प्रोत्साहन मिला।
पाटलिपुत्र, वैशाली एवं ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे।
इस काल में जल एवं स्थल मार्ग द्वारा मिस्र, फारस, रोम, यूनान, लंका, बर्मा. समात्रा. तिब्बत. चीन एवं पश्चिम एशिया से व्यापार होता था।
स्थान विष्णु के 10 अवतारों में वराह एवं कृष्ण की पूजा का प्रचलन इस काल में विशेष रूप से हुआ।
यह कहा जा सकता है कि गुप्त-युग के आते-आते सनातन धर्म का रूप पूर्णतया निश्चित हो गया।