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चिपको आंदोलन इतिहास (नोट) Chipko Movement History in Hindi

Filed under: History on 2021-11-27 06:37:27
चिपको आंदोलन क्या है और कब हुआ था? What is Chipko Movement and when did it happen in Hindi

आज तक न जाने कितने ही जन आंदोलन किए गए हैं और आगे भी किए जाएंगे लेकिन इन सैकड़ों आंदोलनों के प्रभाव को अपनी स्मृति में संजोए रख पाना थोड़ा मुश्किल है। आमतौर पर यदि कोई आंदोलन बड़ा रूप लेता है तभी उसे लोगों का ध्यानाकर्षण मिल पाता है।

लेकिन चिपको आंदोलन इस बात को खारिज करता है कि यदि आंदोलन बड़ा हो तभी उसे लोकप्रियता मिल सकती है। चिपको आंदोलन जो पूरी दुनिया में सबसे प्रख्यात आंदोलन है, जिसमें वृक्षों की रक्षा करने के लिए आम नागरिकों ने देश कि सरकार के विरोध में जमकर प्रदर्शन किया था।

वर्ष 1973 में उत्तर प्रदेश के चमोली जिले जो वर्तमान में उत्तराखंड में आया हुआ है वहां से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। क्षेत्र के रहने वाले आम निवासियों ने पेड़ों के काटे जाने के विरोध में आंदोलन चलाया था। विशेषकर महिलाओं और साथ ही पुरुषों ने हिमालय की ऊंची घाटियों पर लगे हुए वृक्षों के चारों ओर लिपटकर वृक्षों की रक्षा की थी।


जंगलों को संरक्षण प्रदान करने के लिए लोगो ने सामूहिक एकत्रीकरण करके चिपको आंदोलन किया था जिसे आज तक का सबसे प्रसिद्ध आंदोलन भी माना जाता है। दरअसल आजाद भारत में 1927 में एक वन अधिनियम पारित किया गया था, जिसमें ऐसे कई प्रावधान थे जो जंगलों में रहने वाले लोगों तथा आदिवासियों के हित में नहीं थे।

हालांकि इस प्रावधान के विरोध में कई रैलियां और आंदोलन किए गए थे, लेकिन सरकार के राज में आम लोगों की आवाज जैसे दब गई थी। जो आंदोलन 1927 में शुरू हुआ था वह जाकर 1970 में लोगों के नजर में आया जिसे चिपको आंदोलन कहा जाता है। चिपको का अर्थ है गले लगना।

चिपको आंदोलन में सैकड़ों आदिवासी अथवा जनजाति और जंगलों में रहने वाले आम निवासी पेड़ों के अंधाधुंध कटाई किए जाने के कारण बड़े निराश थे और उनके पास कोई दूसरा विकल्प ना होने के कारण उन्होंने उस जगह पर स्थित सभी पेड़ों को गोलाई में घेर लिया, जिसे सरकार ने काटने के लिए निर्देश दिए हुए थे।

चिपको आंदोलन एक ऐसा अहिंसात्मक आंदोलन था जिसने भारतीय सरकार की आंख तो खोली ही साथ ही पूरी दुनिया को भी आश्चर्यचकित किया।


प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए भारत सरकार ने हर मुमकिन कोशिश की लेकिन वे आन्दोलन के बढ़ते आग को फैलने से रोक नहीं पाए और परिणाम स्वरुप गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित चिपको आन्दोलन को एक बड़े स्तर पर जित मिली।


चिपको आंदोलन की मांगे Demands in Chipko Movement in Hindi

सरकार की आन्यपूर्ण नीतियों के चलते आम लोगों में पर्यावरण को लेकर एक नयी जाग्रति आई। सामान्य जनजाति के एक छोटे से पहल के चलते पुरे देश में लोग वृक्षों के अंधाधुन अवैध कटाई के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करने के लिए आगे आए।

यह कहना गलत नहीं होगा की यदि अपने आधिकारों की रक्षा के लिए सैंकड़ों लोग देश के सरकार के विरोध में भी चले जाएँ, तो सरकार भी भीड़ की इस आनोखी ताकत के आगे कुछ भी नहीं कर सकती।


चिपको आंदोलन के प्रणेता माने जाने वाले एक दिग्गज चेहरा सुन्दरलाल बहुगुणा और अन्य कई बड़े लोगों के नेतृत्व में चिपको आन्दोलन किया गया, जिसमे लोगों ने प्रदर्शन को रोकने के लिए कई शर्तें रखीं थीं।

ऐसा माना जाता है कि शुरुआत में इस आन्दोलन की प्रारंभिक मांगें आर्थिक थीं, जिसमे जंगलों और वनवासियों के हितों के विरुद्ध जो ठेकेदारी प्रथा बड़े सुर्खियों में चल रही थी उसे समाप्त करने की मांग प्रदर्शनकारियों द्वारा की गई।

उद्योगीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण उस समय न जाने कितने ही हरे भरे जंगलों को वीरान करने की मुहीम सरकार द्वारा चलाई गई। हालांकि तथाकथित रूप से सरकार ने लोगों की आँखों में धुल झोकने के लिए कई वनोन्मूलन प्रावधान बनाये थे।

इसके आलावा लोगों ने ये भी मांगे रखीं की हिमालय की दुर्लभ क्षेत्रों में जो ऊँचे और खड़े वृक्ष हों उन्हें किसी भी प्रकार की क्षति न पहुचने पाए। साथ ही यह आश्वासन भी माँगा की भविष्य में अगर किसी भी प्रकार की सरकारी योजनाओं को जारी करना हो तो उसमें स्थानीय लोगों की बहुमति का होना अनिवार्य माना जाये।

चिपको आंदोलन देखते ही देखते एक बड़े आन्दोलन में बदल गया, जिसमें राष्ट्र के लिए सबसे जरुरी चीज़ें जल, माटी तथा पर्यावरण की शुद्धता बनाये रखना और उसकी शुद्धता को लम्बे समय तक टिकाये भी रखने को सबसे जरुरी मुद्दा बनाया गया।

आन्दोलन से जुड़े लोगों ने यह भी मांग की सभी वृक्षों को दस से पचीस वर्ष तक काटने तथा किसी भी प्रकार के दोहन पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए और यह प्रतिबन्ध तब तक जारी रखना चाहिए जब तक हिमालय का 60 प्रतिशत हिस्सा वृक्षों से न भर जाये।

लोगों ने यह भी कहा की आने वाले कुछ वर्षों तक वृक्षारोपण को युद्ध स्तर पर लागू करना चाहिए। ताकि स्थानीय लोगों को स्वावलंबन तथा जिव जंतुओं को उनका आवास प्राप्त हो।

जैसे ही लोगों को इस आन्दोलन और मांगों के बारे में पता चला तो अगले ही दिन आसपास के गाँवों से बड़ी संख्या में लोग वहां पहुचने लगे, जिसके बाद यह एक जन आन्दोलन ही बन गया। बारी-बारी से लोग वहां के वृक्षों की चौकीदारी करने लगे।

अपनी मांगों को सरकार तक और सभी नगरजनों तक पहुचाने के लिए लोगों ने अनोखे तरीके का इस्तेमाल किया, जिसमें पदयात्राएं, लोकगीत, कहानियां आदि शामिल थे।


चिपको आंदोलन में महिलाओं की भूमिका Role of Women in Chipko Movement in Hindi

जहाँ एक तरफ चिपको आन्दोलन में पुरुषों की भूमिका ज्यादा थी, तो दूसरी ओर महिलाओं ने भी कड़ा मोर्चा संभाल रखा था। इस आंदोलन को महिलाओं का आंदोलन भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या ज्यादा थी।

26 मार्च सन 1974 को सरकारी ठेकेदार रेनी गांव के वृक्षों को काटने आए तो उस वक्त उस गांव के पुरुष खेतों में कार्य कर रहे थे, जो उनके घर से दूर था। तो गांव की महिलाओं ने गौरा देवी के नेतृत्व में कुल्हाड़ी लेकर आए ठेकेदारों को यह कह कर भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है और हम इसे किसी भी कीमत पर काटने नहीं देंगे।

किसी भी स्त्री का मायका उसके लिए सम्मान की बात होती है, इसे बनाए रखना उसका प्रथम कर्तव्य होता है। और पहाड़ी महिलाओं का जंगलों से गहरा लगाव होता है।

पशुओं के लिए घास चारे से लेकर घर की देखभाल का सारा कर्तव्य महिलाओं के ऊपर ही होता है इसलिए इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका बेहद ही बढ़ गई थी। क्योंकि उन्हें घर के साथ-साथ अपने जंगलों की भी रक्षा करनी थी।

इसके बाद 1 फरवरी 1978 को गांव के जंगल में ठेकेदार पुलिस बल को लेकर पहुंच गए। जिनमें सभी पुलिस वालों के पास धारदार कुल्हाड़ी और हथियार थे। उन्हें देखकर गांव की महिलाएं बिल्कुल भी डरी नहीं तथा पेड़ों से जाकर चिपक गई।

उनका नारा था कि पेड़ों को काटने से पहले उन्हें काट दिया जाए। ऐसे अहिंसक प्रतिरोध को देखकर ठेकेदारों और पुलिस वालों के हाथ पांव फूल गए। ठीक ऐसे ही एक प्रसंग 9 फरवरी 1978 को नरेंद्र नगर में महिलाओं ने भारी पुलिस बलों के बीच वनों की होने वाली नीलामी का भरपूर विरोध किया। जिसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया।

25 दिसंबर सन 1978 को मालगाड़ी क्षेत्र के लगभग ढाई हजार पेड़ों की कटाई रोकने के लिए महिलाओं ने आंदोलन को अपने हाथ में लिया। नतीजा यह निकला इतने बड़े जन आंदोलन को देखकर सरकार के हाथ पांव फूल गए।


साथ ही सुंदरलाल बहुगुणा ने 13 दिन का उपवास रखकर जन आंदोलन में अपनी भागीदारी पेश की। परिणाम स्वरूप सरकार ने अपने फैसले को बदल दिया और तीनों जगहों पर होने वाली कटाई को स्थगित कर दिया।

सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के लिए बातचीत का न्योता भी दिया। जिसके बाद गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई बंद करने की घोषणा की गई।

चिपको आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बहुत ज्यादा थी, उनका मानना था कि एक औरत को घर चलाने के लिए ईंधन, चारा, पानी की जरूरत पड़ती है जिसके लिए वह पूरी तरह से वनों पर निर्भर है। अगर एक बार उनके इस प्राकृतिक विरासत का नाश हो गया तो इससे उनके आने वाली पीढ़ी पर सीधा असर पड़ेगा।

खेजड़ी की बेटी अमृता देवी से संबधित जानकारी Information Related to Khejdi’s Daughter Amrita Devi in Hindi

राजस्थान के जोधपुर जिले से मात्र 25 किलोमीटर की दूरी पर खेजडली नामक गाँव पूरी दुनियां में पर्यावरण संरक्षण के लिए जाना जाता है। पुरे विश्व में पर्यावरण संरक्षण को लेकर इतना बड़ा बलिदान कही और देखने को नहीं मिलता।

बात सत्रहवी शताब्दी की है, जब जोधपुर के तत्कालीन महाराज अजित सिंह के महल का निर्माण हो रहा था। निर्माण कार्य के लिए लगने वाले चुने की भट्ठियों को चलाने के लिए मजबूत और बड़े लकड़े की आवश्यकता थी।

जिसकी व्यवस्था के लिए राजा के बेटे अभय सिंह ने राज्य के मंत्री गिरिधारी दास भंडारी को आदेश दिया। जिसके बाद भंडारी लकड़ी की व्यवस्था के लिए निकल पड़े।


तलाश के बिच मंत्री गिरिधारी दास भंडारी की नज़र खेजडली गाँव पर पड़ी जहाँ खेजड़ी के वृक्षों की संख्या ज्यादा थी। अपने मजदूरों और सैनिकों को लेकर भंडारी खेजडली गाँव पहुचे और एक घर के बाहर लगे वृक्ष को काटने का आदेश दिया।

लेकिन तभी घर की मालकिन अमृता देवी विश्नोई ने मंत्री को पेड़ काटने से रोक दिया और कहा की खेजड़ी के पेड़ों को हम राखी बांधते हैं, इसलिए ये पेड़ हमारे घर के सदस्य की तरह हैं इसलिए हम इसे किसी भी कीमत पर काटने नहीं देंगे।

विवाद बढ़ने पर गाँव के निवासियों ने पेड़ काटने का विरोध किया, जिसके बाद मंत्री और उसके मजदूरों को दबे पाँव वापस लौटना पड़ा। अपनी बेइज्जती को दिल में दबाये मंत्री वापस तो चला गया लेकिन कुछ ही समय बाद वह ढेर सारे सैनिकों के साथ खेजड़ी के वृक्षों को काटने लगा।

आवाज सुनकर अमृता देवी ने हंगामा करना शुरू कर दिया और पेड़ से जाकर लिपट गयी। लेकिन मंत्री के सैनिकों ने अमृता देवी के सर को भी काट दिया। अपनी माता का सर कटते देख उनकी बच्चियों ने भी वृक्षों को घेरकर खड़ी हो गयी, तो उन बच्चियों का सर भी काट दिया गया।

डरने और भागने के जगह बिश्नोई समाज के लोगों ने अमृता देवी का अनुसरण करते हुए पेड़ का आलिंगन करते हुए आगे आते रहे। मंत्री और उनके सैनिकों ने पेड़ से चिपके हुए 363 ग्रामवासियों के सर काट दिए।

जब बात राजा तक पहुंची तो राजा ने मंत्री को वापस बुला लिया तथा राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों को काटने पर हमेशा के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया। इसके बाद अंग्रेजी सरकार तथा आजादी के बाद बनी भारत सरकार ने भी जोधपुर के महाराज के फैसलों को यथावत रखा।

1983 में राजस्थान सरकार ने खेजड़ी के वृक्ष को राजवृक्ष घोषित कर दिया और हर साल सितम्बर में अमृता देवी और विश्नोई समाज के बलिदानियों के सम्मान में खेजडली गाँव में वृक्ष मेला का आयोजन किया जाता है।

चिपको आंदोलन का प्रभाव व बदलाव Impact and Changes of Chipko Movement in Hindi

चिपको आन्दोलन के माध्यम से जन समुदाय में पर्यावरण के प्रति जो सम्मान और जागरूकता आई है उसे किसी भी परिप्रेक्ष्य में नकारा नहीं जा सकता।

इस आन्दोलन के माध्यम से आधुनिकता की पट्टी को बांधकर पर्यावरण का विनाश करने वाले अज्ञानियों के विचारों को एक प्रतिघात मिला है साथ ही भारत सरकार के नियमों और कानूनों को भी प्रकृति के अनुरूप ढालने के लिए मजबूर किया है।

चिपको आन्दोलन का ही नतीजा है कि हजारों हेक्टेयर भूभाग पर जंगलों का विनाश होने से बाख गया और कोई भी राज्य या केन्द्रीय सरकार सामूहिक तौर पर पर्यावरणीय विनाशक कदम उठाने से बचती है। साथ ही इसने आधुनिक विकास के मोडल को भी चुनौती दी है।

इससे विचारधारा की मिसाल भी देखने को मिली है जिसके परिणाम स्वरुप सुन्दरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे कुशल पर्यावरणगामी नेता मिले।

चिपको आंदोलन ने पुरे विश्व के लोगों को पर्यावरण से प्रेम करने की सीख दी और पर्यावरण हमारे लिए किस प्रकार उपयोगी है, इस पर गहन चिंतन-मनन करने के संकेत भी दिए हैं।
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Vikash Gupta     View Profile
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