सातवाहनों के पतन एवं 6ठी’ शताबदी के मध्य में चालुक्यों के उदय होने तक दक्कन में वाकाटक ही मुख्य शक्ति थे।
तीसरी शताब्दी ई. में दक्षिण के सातवाहनों की शक्ति नष्ट होने पर वहाँ कई छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। लगता है कि तीसरी शती के मध्य में शक्तिशाली सातवाहन राज्य के क्षीण पड़ने एवं विघटित हो जाने के बाद जिन छोटी-बड़ी शक्तियों का उदय हुआ, वाकाटक उन्हीं में से एक थे।
वाकाटक शक्ति के संस्थापक विंध्यशक्ति के पूर्वजों एवं उनके उद्गम स्थान के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।
मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश के समकालीन इस राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और भारत के सांस्कृतिक निर्माण में ऐतिहासिक योगदान दिया। इनका मूल निवास-स्थान बरार (विदर्भ) में था।
विंध्यशक्ति को विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण माना जाता है।
वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ एवं पाँचवीं शताब्दी के अंत तक चला।
पुराणों के अनुसार विंध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन ने ‘अश्वमेध यज्ञ’ किया एवं उसके कार्यकाल में वाकाटक साम्राज्य बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तृत था।
पुराण इस वंश के शासक प्रवरसेन का उल्लेख ‘प्रवीर’ के रूप में करते हैं जिसने चार अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था और साठ वर्षों तक शासन किया था।
वाकाटक शासक साहित्य एवं कला के प्रेमी थे, प्रवरसेन ने एक प्रसिद्ध कृति सेतुबंध की रचना की।