ई०पू० 189 में पुष्यमित्र शुंग ने मगध पर शुंग वंश के शासन की स्थापना की एवं ई०पू० 149 में मरने से पूर्व 36 वर्षों तक शासन किया।
पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ का सेनापति था तथा उसने उसकी हत्या कर शासन पर कब्जा किया।
पाटलिपुत्र से दूर होने के कारण मगध के एक प्रांत अवन्ती पर नियंत्रण करने में कठिनाई के कारण पुष्यमित्र शुंग ने विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
कालीदास के मालविकाग्निमित्रम में पुष्यमित्र शुंग को ‘कश्यप गोत्र’ का ब्राह्मण माना गया है।
पुष्यमित्र शुंग ने एक सैन्य-क्रांति द्वारा सत्ता हथियाने के समय तथा अपने अंतिम दिनों में (कुल दो) अश्वमेध यज्ञ किये।
शुंग वंश का अंतिम शासक देवभूति था, जिसकी हत्या 73 ई०पू० में उसके ब्राह्मण मंत्री वासुदेव ने कर दी तथा इसी के साथ इस वंश का शासन समाप्त हो गया।
इतिहासकार तारानाथ तथा पाणिनि ने भी उसके ब्राह्मण होने की पुष्टि की है।
अश्वमेध घोड़े को सिंधु नदी के तट पर यवनों द्वारा पकड़ लिये जाने के कारण पुष्यमित्र के नाती बसुमित्र के नेतृत्व में शुंग सेना ने यूनानियों को परास्त कर दिया।
बौद्ध साहित्य दिव्यदान में पुष्यमित्र को बौद्धों पर अत्याचार करने वाला बताया गया है। पुष्यमित्र शुंग ने भारहुत एवं सांची के स्तूपों का पुनर्निर्माण कराया।
पुष्यमित्र शुंग ने साम्राज्य-विस्तार के तहत विदर्भ (शासक-यज्ञसेन) को जीत लिया।
इस काल में ब्राह्मण धर्म ‘भागवत धर्म’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसी काल में ‘पतञ्जलि’ ने ‘पाणिनि’ के अष्टध्यायी पर टीका ग्रंथ महाभाष्य लिखी।
कालीदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में विदर्भ की राजकुमारी मालविका एवं अग्निमित्र (पुष्यमित्र का पुत्र) के प्रेम-संबंध एवं शुंगों द्वारा ‘विदर्भ की जीत’ का विवरण दिया गया है।
शुंगकाल में भागवत् सम्प्रदाय का पुनरुत्थान हुआ। इस काल में हिन्दुओं के देवमंडल में वासुदेव कृष्ण की प्रधानता स्थापित हुई।
भाजा के विहार, बोध गया की वेष्टिनी तथा बेसनगर में गरुड़ध्वज स्तंभ आदि शुंग-कालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
वैदिक धर्मशास्त्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मृति-ग्रंथ मनुस्मृति की रचना इसी काल में हुई। विदिशा के शिल्पियों ने इसी काल में साँची-स्तूप के द्वारों का निर्माण किया।